चटकी कलियां
महका मधुबन
पीपल के पत्तों
की थिरकन
वही मूंज़ की
टूटी खटिया
कमर झुकाए
बैठी एक बुढ़िया
खटिया से लाठी
को सटाए
आंखों को चेहरे
में धंसाए
चमड़ी झुर्रियों
से भरी
जीवन की
सौगात ये पाए
मैली गूदड़ी से
जिसे छुपा कर
बेबसी से खुद
को दबाकर
मृत्यु से नज़रें
चुराकर
निकले धागों को
चुनचुन कर
सूखी लकड़ियों को
गिनगिन कर
पूरे कर रही
दिन अपने
कितने देखे थे
उसने सपने
सब ज़वां हो गये
कर्ज़े से कमर
को तोड़ गए
जो दाने उसने
बांटे थे
बच्चों के पेट
में डाले थे
उन दानों का
ब्याज़ अभी बाकी है
ममता के पलों का
हिसाब अभी बाकी है
बुढ़िया के आखिरी
सफर का इन्तज़ाम
अभी बाकी है
रविवार, 7 सितंबर 2008
व्यथा या श्राप ...
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4 टिप्पणियां:
achaa he
बुढ़िया के आखिरी
सफर का इन्तज़ाम
अभी बाकी है
बहुत सुंदर!
sundarachna hai.
बहुत बढ़िया, वाह!!!
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