ब्लोगिंग जगत के पाठकों को रचना गौड़ भारती का नमस्कार

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शनिवार, 27 नवंबर 2010

अधूरी सी ..................
विक्षिप्त सी सीमा रेखा,
विलोम सभ्यता की प्रतीक
सी लगती है ।
ऊंची नीची पहाड़ियों पर,
आदमी और आदमखोरों की
लुका छुपी में
जर्जरता से बेफिक्र,
त्रासदी की बर्बरता अधूरी लगती है ।
दूसरों की पीड़ा वो,
क्यों कर सहें जब ,
स्वंय ही पीड़ित दिखते हों,
ऐसे आशातीतों की
हर बात अधूरी लगती है।
रंज से भीगे रुमालों से
जब मुंह वो पौंछा करते हैं ,
खुद इसकी खबर इन्हें नहीं
एक बूंद खून की गिरने पर
चहुं ओर तबाही मचती है ।
कटाक्ष नजरों के घेरे से,
जब अंगारों की धुंधकार निकलती है,
वहीं दबी -2 सी चिनगारी
जवालामुखी सी लगती है ।