ब्लोगिंग जगत के पाठकों को रचना गौड़ भारती का नमस्कार

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रविवार, 12 सितंबर 2010

हरी पीली पत्तियां

देखी हैं डालियों पर झूमती हुईं पत्तियां
कहीं हल्की तो कहीं गहरी होती पत्तियां
पीले जर्द़ पत्तों की डाह सहतीं पत्तियां
मगर पीले पत्तों का बेजुबान दुख
हवा से थर्रायी, थकीं, ज़मीन ढकती पत्तियां
उम्र के आखिरी पड़ाव से जूझती
कसमसाती पीली पत्तियां
पेड़ से गिरीं, अपने ही आशियाने की
तुलसी बनीं पत्तियां
हरी पत्तियों में शामिल होने को बेचैन
राह तकतीं पत्तियां
कुछ राहगुज़रों के पैरों रौंदी
आप-बीती दोहराती पत्तियां
कहने को दोनों ही बेजुबान मगर
शारीरिक भाषा में अपनी पीड़ा बताती
और बताती मस्तियां
डाल से जुड़ने से हर्षयुक्त
आन्दोलित हरी पत्तियां
वहीं अतीत की यादों से जर्द पीली पत्तियां
घर में कूड़ा लगतीं, बुहारी जातीं पीली पत्तियां
लेकिन मृदा में दबी खाद में तब्दील उत्सर्गी पत्तियां
खुदा हमें डाल से वहीं गिराना
जहां हम भी बन जाएं उत्सर्गी पत्तियां