विक्षिप्त सी सीमा रेखा
विलोम सभ्यता का प्रतीक
सी लगती है ।
ऊंची नीची पहाडियों पर ,
आदमी और आदमखोरों की
लुका छुपी में ज़र्जरता से बेफ़िक्र
त्रासदी की बर्बरता अधूरी लगती है ।
दूसरों की पीड़ा वो
क्यों कर सहें जब,
स्वयं ही पीड़ित दिखते हों,
ऐसे आशातीतों की
हर बात अधूरी लगती है।
रंज से भीगे रूमालों से
जब मुंह वो पोंछा करते हैं,
एक बूंद खून कि गिरने पर
चहुं और तबाही मचती है।
कटाक्ष नज़रों के घेरे से,
जब अंगारों की धुंधकार निकले
वहीं दबी-दबी सी चिनगारी
ज्वालामुखी सी लगती है ।
शनिवार, 6 सितंबर 2008
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3 टिप्पणियां:
bahut achha.
कटाक्ष नज़रों के घेरे से,
जब अंगारों की धुंधकार निकले
वहीं दबी-दबी सी चिनगारी
ज्वालामुखी सी लगती है ।
रचना जी अच्छी कविता
बेहतरीन रचना!!
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