सूरज की लालिमा को देखो
क्या कहती है उसकी रोशनी
जीवन की उमंगो को धागे से बांधो
निश्चल प्रेम की डोर से पूछो
कैसे टूट गयी नभ में वह
तरगं सी उठी थी मन में एक
किसी के कदमों कि आहट पाकर
चिड़ियों की चहचहाहट रुक सी गई
मन मॄदंग पर सरगम बनकर
शहनाई बज़ी थी दूर कहीं
किसी के आने के इन्तज़ार में
हवा के झोंकों से क्यों रुकी वह
जो बात किसी से कह न सकी
वह बरसती आखों ने कह डाली
लगन से सोचा था जिसे मेंने
कैसे पल भर में जुदा हुई वह
उषा की किरणों से पूछो
कैसे बिछ्डी थी अन्धकार में
सिसकियों को बन्द करके
अधरों पर लाई थी मुस्कान कैसे
भूल कर अपनी दूरियां जो
गतिमान है आज नई दिशा में
ऐसी सूरज की लालिमा को देखो
गुरुवार, 4 सितंबर 2008
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7 टिप्पणियां:
सुन्दर शब्द चित्रण किया है।
बढिया रचना है।
ek behtrine rachna.
बहुत सुंदर शब्द और भाव से सजी रचना...असरदार...आप को बहुत बधाई.
नीरज
रचना जी बहुत ही बेहतरीन रचना कर लिए आपको बधाई। आगे भी ऐसे ही जगमगाती रहिये अपनी लेखनी से।
bhavapoorn rachana . likhate rahiye. dhanyawad.
बहुत ही अच्छा लिखा है। बढिया रचना है।
बहुत सुंदर..बधाई.
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