ग्लानि पछतावे का दलदल
बना मैले मन से ये कीचड़
था मन का ये निजी फैसला
जिसके लिए खुद मन तड़पा
उन्मुक्त हल्का हो नाच उठा
अपने से दुख अपना बांट चुका
झरझर निर्झरी से हुई बरखा
न्याय निखरा मन मयूर थिरका
इन नयनों को सुखाने के लिए
तब कहीं कोई रूमाल निकला
कशदे जिसमें सहानुभूति के थे
हमने कहा चलो गुबार निकला
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
6 टिप्पणियां:
ग्लानि पछतावे का दलदल
बना मैले मन से ये कीचड़
था मन का ये निजी फैसला
जिसके लिए खुद मन तड़पा
बहुत बढिया रचना है रचना जी
दर्द की टीस को संगीत समझ लेते हैं।
मेरी हर हार को भी जीत समझ लेते हैं।।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
मुश्किलों से भागने की अपनी फितरत है नहीं।
कोशिशें गर दिल से हो तो जल उठेगी खुद शमां।।
www.manoramsuman.blogspot.com
इन नयनों को सुखाने के लिए
तब कहीं कोई रूमाल निकला
कशदे जिसमें सहानुभूति के थे
हमने कहा चलो गुबार निकला
--बहुत बढिया!!
hamare blog par sair karne ke liye sukariya,aapka blog saandar laga ....
लिखना जारी रखें कहीं कहीं मुझे रचना में थोड़ा सा भट्काव लगा उस पर ध्यान दें तो रचनाओं में बात तो है
prakashbadal.blogspot.com
main blog par naya huen kuchh kamian ho sakti hain, aapki sabhi rachnaein pasand aayin, badhai.
yogesh swapn (dream par)
yogeshverma56@gmail.com
एक टिप्पणी भेजें