जलते रहे हम अंजन से अंखियां तुमने भरी
क्षणिक आकर्षक जोत का आलोकित दुनिया रही खिंचकर जिसके मोहपाश में आहूती पतंगों ने दी ज्योतिर्मय हुए जिससे सबकी दुनियां रौशन रही प्रकाशपुंज की ज़रूरत क्यों दीपक तल को नहीं रही
बाती के शीर्ष पर ज्योति बाकी तेल में डूबी रही
दीर्घ से लघु रूप लेकर धन्य जो उत्सर्गी बनी
फड़फड़ाते पतंगों को देख इक पल ज्योति थमी
आखिरी पल भरपूर जीकर पुरजोर धधक उठी
दीप को सूना किया और ॐ में विलीन हुई
युग बीते इस खेल खेल में जग ने शिक्षा ली नहीं
जिसने जानी उसने न मानी दीपज्योति की व्यथा यही
दीर्घ से लघु रूप लेकर धन्य जो उत्सर्गी बनी
फड़फड़ाते पतंगों को देख इक पल ज्योति थमी
आखिरी पल भरपूर जीकर पुरजोर धधक उठी
दीप को सूना किया और ॐ में विलीन हुई
युग बीते इस खेल खेल में जग ने शिक्षा ली नहीं
जिसने जानी उसने न मानी दीपज्योति की व्यथा यही
2 टिप्पणियां:
bahut achchha.
atyant sundar,
isi prakar likhti rahen,humen padhne ko milti rahen.
shubhkaamnaaon sahit.
sanjeev mishra
www.trashna.blogspot.com
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