धूमकर फिर उसी
मुकाम पर पहुंचे
रहते थे जहां हम और
हमारी तन्हाइयों के धेरे
सामने था समन्दर कहां जाते
उसी पर कुछ देर आ ठहरे
लहरों पे हिचकौले खाते
चलकर मौजों में उतरे गहरे
जहान के बनाए दायरों को
तोड़ सुकून फिर चेहरे पे उभरे
कलकल की आवाजें थीं
और लहरों के थे थपेड़े
हर प्रश्ननचिन्ह के जवाब में
मिले हम अकेले
ये सागर नहीं भवसागर था
जिसमें ये कवि सारे
कागज़ की कश्ती में
किनारे को ढूंढ्ने निकले
सागर होता तब भी तर जाते
ये तो भवसागर था
डूबते नहीं तो कहां जाते
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1 टिप्पणी:
बहुत बढ़िया!!
आपको एवं आपके परिवार को दीपावली की हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाऐं.
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