दान देते देते मैं तो थक गई
वो न ले गए जो मेरे पास था
गूंजती थी, खनक उनके कानों में जो
मेरे दामन में देने को बस प्यार था
वो महलों, दो महलों की बातें करें
दिल की जागीरी का बस मुझे शौक था
ख्वाब होते कैसे, मेरे पूरे भी वो जिनकी
कीमत का बस मुझे अन्दाज था
उधर शौक था, लूटने का उन्हें
हमारे लुटने का भी एक अंदाज था
खत्म होगए सब लब्ज और फलसफे
ढाई अक्षर का बस हमको अहसास था
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9 टिप्पणियां:
बहुत सुंदर रचना . बधाई लिखती रहि.ये ..
Aapko Likhne Par badhai aur bahut dhanyawad mere website par aane ka.
Sandeep Chatterjee
Singapore .
बहुत बढ़िया. आजकल कम दिखने की वजह??
बहुत भावपूर्ण शब्दों से सजायी है आपने अपनी रचना...बधाई...
नीरज
Pyar ka pahla isq ka dusra aur mohabbat ka teesra akshar aadha hota hai.....
iska ahsaas in panktiyo mai bakhoobi ho raha hai
suparb....
bahut sunder... kya baat hai!!!
मूल्यवान विचार एवं अभिव्यक्ति ..धन्यवाद ..
khatm ho gaye sare falsafe bas dhai aksher ka ehasas tha apki is kavita ki ye akhri line meri real life se sambandhit he
aap ka blog dekha kaviton mai chupa marm samja, gahraiyo mai doob kar vastvikta se sakshatkar karwane ki aap ki dakshta ko amrit ka koti-koti salam
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