अधूरी सी ..................
विक्षिप्त सी सीमा रेखा,
विलोम सभ्यता की प्रतीक
सी लगती है ।
ऊंची नीची पहाड़ियों पर,
आदमी और आदमखोरों की
लुका छुपी में
जर्जरता से बेफिक्र,
त्रासदी की बर्बरता अधूरी लगती है ।
दूसरों की पीड़ा वो,
क्यों कर सहें जब ,
स्वंय ही पीड़ित दिखते हों,
ऐसे आशातीतों की
हर बात अधूरी लगती है।
रंज से भीगे रुमालों से
जब मुंह वो पौंछा करते हैं ,
खुद इसकी खबर इन्हें नहीं
एक बूंद खून की गिरने पर
चहुं ओर तबाही मचती है ।
कटाक्ष नजरों के घेरे से,
जब अंगारों की धुंधकार निकलती है,
वहीं दबी -2 सी चिनगारी
जवालामुखी सी लगती है ।
16 टिप्पणियां:
एक बेहतरीन अश`आर के साथ पुन: आगमन पर आपका हार्दिक स्वागत है.
आप बहुत सुंदर लिखती हैं. भाव मन से उपजे मगर ये खूबसूरत बिम्ब सिर्फ आपके खजाने में ही हैं
Gajab likha hai apne bhi meri tarah .
Nice post .
manpasand rachna .
wow ....
Tippani de di ab padhunga araam se .
yh tippani to maine sanjay bhai ko dekhkar hi likh di.
Bura mat manna .
Abhi naya naya hun main .
सारगर्भित रचना . बहुत सुंदर .बधाई
दूसरों की पीड़ा वो,क्यों कर सहें जब ,स्वंय ही पीड़ित दिखते हों, ऐसे आशातीतों की हर बात अधूरी लगती है...
बात में दम है !
apki rachna adbhut hai please mera blog bhi ek baar dekhe aap padhengi to sukun milega aur meri galtiya batana please
धन्यवाद,
बेहतरीन प्रस्तुती.....
come here from Malaysia =)
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