रास्ता अंजान था
डगर थी अंज़ानी
नुकीले से पत्थ़रों में
चूनर अटकी धानी
डरे-डरे से सूख़े होंठ
आया पेश़ानी पर पानी
नज़रें किसी के छूने से
म़ायने ज़िन्दगी के ज़ानी
आस-पास धुंआ-धुंआ
सब जल रहा था
बेखबर सी वो थी
ज़माना ब़ेक़ल था
कि वो जल रही थी
या उसे जला रही थी
उसकी प्रेमाग्नि ।
शनिवार, 14 फ़रवरी 2009
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4 टिप्पणियां:
premagni , rachna ji badhaai , sunder rachna.
प्रेमाग्नि की अनूठी परिभाषा !!!!बहुत शानदार !!!!
अति सुन्दर है आपके यह "Premaagnee" रचना.
rachana ji is kavita ki jo patra he wo prem ki agni me jalna chahati he lekin use is jalim samaj ka dar he lekin uska prem such he agar usne apne mann se prem kiya he too use is prem ki agni me jalna ho tabhi uska prem umer kahelayega
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