कच्ची मिट्टी का घड़ा हो तुम मैं हूं तुम्हारी सुराही भीनी सी खुश्बू तुम में थी सुगंधित जल मैं भर लायी जीवन का लहू जमा हुआ सा चलो मिलकर इसे पिघलाएं एक कुम्हार (परमात्मा), एक ही मिट्टी, तुम रहे तने, मुझे झुकाया ये कैसी प्रकृति टूटोगे तुम भी, बिखरूंगीं मैं भी काम एक ही है प्यास बुझाना प्यास जो बुझे तो प्यासे, खुदा से दुआ करना मटके से मेरी गर्दन कभी न लम्बी करना वरना ये दुनियां पकड़-पकड़ गिराएगी पानी पीकर खाली सुराही (भोग्यक्ता) ज़मीन पर लुढ़काएगी
पेड़ के ओखल में कठ्फोड़्वे का घर था वन पेड़ों से बेजोड़ था बीहड़ जंगल, लकड़ियों का खजाना जैसे जीव जन्तुओं से नहीं इसे खुदगर्ज़ आदमियों से डर था वहीं हाथों में कुल्हाड़ी लिए कुछ लकड़ी चोरों का भी दल था कठ्फोड़्वे और लोगों को जंगल से बराबरी का आसरा था पहली कुल्हाड़ी की ठेस वृक्ष व कठफोड़वे को एक साथ हिला गई तब कठफोड़वे की निगाह अपनी प्रहारी चोंच के प्रहार पर गई तने को आश्वासित कर वो उन लोगो पे जा टूटा अपने आसरे का सिला एक कठफोड़वे ने ऐसे दिया अब वृक्ष की हर शाखा भी झूम उठी तेज पवन के झौंकों से जैसे निकली ध्वनि, शुक्रिया कह उठी ये पेड़ एक विद्यालय के प्रांगण में था लोग जहां के अशिक्षित पर वृक्ष शिक्षा की तहज़ीब में था परोपकारिता और शिष्ट्ता का पाठ एक वृक्ष व कठफोड़वा पढ़ गया अफसोस इतना ही रहा कि इन्सानियत का मानव इससे क्यों निरक्षर रह गया ।
असर पूछे सुबहे विसाल जब हमारा हाल पसीने से दुपट्टा भीग जाता है शमां अंधेरो में जलाते है, इसका असर परवानो पे क्यों आता है
पुकार कतरा-कतरा दस्ते दुआ पे न्यौछावर न होता जो तेरे शाने का कोई हिस्सा हमारा भी होता हम तो मस्त सरशार थे अपनी ही मस्ती में यूं बज़्म में बैठाकर तुमने गर पुकारा न होता
दुहाई ज़मीं आस्मां से पूछती है मेरे आंचल में सारी कायनाथ रहती है चांद तो दागी है फिर भी खूबसूरती की दुहाई इसी से क्यों दी जाती है
राजस्थान पत्रिका परिवार परिशिष्ट दिनांक 3.12.08 में प्रकाशित चलो आज कुछ आभास खरीद लाऊं वो मेरे करीब आ मुझसे हाथ मिलाए और मैं खुश हो जाऊं जैसे उस दिन बूढ़े को खाना खिलाने पर हुआ था खुश हो आगे बढ़ हाथ मिलाया था और जब अधनंगे बच्चों को मैने पुराने कपड़े दिए तब हुआ था हां! तब भी जब स्टेशन पर फटे कपड़ों से पगली की झांकती अस्मिता को ढंका था मुझे पता है स्वार्थ वहीं खड़े खड़े सब तक रहा था, अपने थके कदमों से पालथी मारने की कोशिश उसकी और ‘वो’ मुझसे दो फर्लागं दूर हो गया था उफ! ये बार बार का आना जाना उसका क्या जरूरी है उपकार करती रहूं पर बिना स्वार्थ उपकार भी कहां होता है मैं भी उसके करीब होने के लिए उपकार करती हूं क्योंकि मुझको मेरा जमीर बहुत प्यारा लगता है ये मेरा स्वार्थ है पुण्य कमाने के लिए तभी वो कभी पास कभी दूर रहता है
नायाब सा एक तोहफा, अजीज से मिला हमें अहसास एक अपनेपन का, तुकारे में मिला हमें दिल गद गद था रोम-रोम अलंकृत जिसमें फिर दोबारा कोई जज्बा उठा है मन में जिन्दगी की अनबूझी पहेलियों के बीच प्यास में जैसे मटके का पानी मिल गया हमे महके से हम थे महका सा ये समा था जिसमें तेज सांसो ने भी संगीत सुनाया हमें कहते हैं बहुत कुछ के लिए कुछ काफी नहीं चलो बहुत से कुछ का तो सफर मुहैया हुआ हमें