मानव मूल्य मंजूषा
जीवन जीजिविषा
वृक्षारोपण
वृक्ष-क्षरण
जन्म औ मृत्यु
पेड़ लगा है
पेड़ गिरेगा
मानव जन्मा
मानव मरेगा
वृक्षों का सफर
उपादेयता
जीवनपर्यन्त
पर्यावरण, औषधी
प्राणवायु, संरक्षण
गिरे पेड़ की उपादेय
लकड़ी उसकी
क्या, सीखेगा मानव ?
जो खाली हाथ आया
मगर सीखकर पेड़ों से
खाली हाथ नहीं जाएगा
ले जाएगा उत्सर्ग की उष्मा
जो मरणोपरान्त दे सकता है
अंग, देह के दान से
मसीहा बन
मरकर भी अमर हो
दे जाएगा दुनियां को
जीने का नया संदेश
नई दिशा उत्सर्ग की
बुधवार, 24 जून 2009
शनिवार, 20 जून 2009
एक पल
क्या कोई पल सार्थक हुआ हमारा
हां! उसका हुआ जो आज बिस्तर में पड़ा है
फटे सिर के हिस्से में टांके जड़े
जीवन के टूटे पलों को सीता
घटित हुआ उसी सड़क पर जहां
नित नई चेतना लंगड़ी होती है
सड़क की आवाजाही और
चिलचिलाती धूप में
टक्कर खाती त्रस्त धूल थी,
चश्मदीद गवाह उसकी
न रफ्तार तेज़ थी,
न मादक पेय से था बोझिल शरीर
वहां तो बेलिहाज़ गाय के
अस्थिर कदम थे आगे
यकायक अन्र्तरात्मा की आवाज़
बचाओ इसे बचाओ
और खेल गया अपनी जान पर
उसकी बचाने के लिए दर्द,
कराह, रोम रोम की
पीड़ा इस सोच के आगे
एक खामोश अतृप्त सांत्वना
दे रही थी उसको
एक जीवन की रक्षा अपनी सुरक्षा
से बड़ी लगी थी उसे
क्योंकि मिल गई थी उसे
निशब्द दुआ निरीह की
जो आशीर्वाद स्वरूप
तमाम जख्मों पे मरहम बनी थी
हां! उसका हुआ जो आज बिस्तर में पड़ा है
फटे सिर के हिस्से में टांके जड़े
जीवन के टूटे पलों को सीता
घटित हुआ उसी सड़क पर जहां
नित नई चेतना लंगड़ी होती है
सड़क की आवाजाही और
चिलचिलाती धूप में
टक्कर खाती त्रस्त धूल थी,
चश्मदीद गवाह उसकी
न रफ्तार तेज़ थी,
न मादक पेय से था बोझिल शरीर
वहां तो बेलिहाज़ गाय के
अस्थिर कदम थे आगे
यकायक अन्र्तरात्मा की आवाज़
बचाओ इसे बचाओ
और खेल गया अपनी जान पर
उसकी बचाने के लिए दर्द,
कराह, रोम रोम की
पीड़ा इस सोच के आगे
एक खामोश अतृप्त सांत्वना
दे रही थी उसको
एक जीवन की रक्षा अपनी सुरक्षा
से बड़ी लगी थी उसे
क्योंकि मिल गई थी उसे
निशब्द दुआ निरीह की
जो आशीर्वाद स्वरूप
तमाम जख्मों पे मरहम बनी थी
मंगलवार, 9 जून 2009
स्थिर परम्पराएं
आओ चलो पत्थरों की फसलें उगाएं
कुछ ताजिये ठंडा करें
कुछ गणेश प्रतिमाएँ विसराएँ
बारम्बार रीतियों के चक्र में
कुछ नीतियों को खोदें
कुछ को दफनाएं
स्थिर प्रकृति के चलचित्रों से
इनको थोड़ा अलग बनाएं
आओ चलो पत्थरों की फसलें उगाएँ
ऊँचे ढकोसलों की ऊहापोह में
इंसान से गिरता इंसान बचाएं
ठकुरसुहाती सुनने वालों को
उनका चरित्र दर्पण दिखलाएं
होगा न रंगभेद डुबकी लगाने से
सागर में थोड़ी नील मिलाएँ
नीले अंबर से सागर का समागम करवाएं
आओ चलो पत्थरों की फसलें उगाएँ
मंगलवार, 2 जून 2009
नया सवेरा
वो पांच पहर की अज़ान
सुबह शाम की आरतियां
उस अधमरी लाश में
कुछ हरकत पैदा करतीं है
अलसाए सूरज की
बुझती किरणों को
एक बार फिर विदा करती है
सड़्क किनारे बैठे भिखारी
अर्धखण्डित मुंडेरों पर कौए
सागर तट तड़पती मछलियां
उसे और अधमरा करतीं हैं
लाल किले का तिरंगा
दलदल में खिला कंवल
लुकछुप नाचता मोर
चीते मिलें चहुं छोर
पीड़ित अधीर आत्मा में
कुछ धीर पैदा करती है
किसकी है विचलित आत्मा
जो प्रतिपल आठों पहर
कराहती सिसकती
सुनने को नया आगाज़
बैचेनी बयां करती है
नहीं हम मरने नहीं देंगे
इस हमारी संस्कृति को
पकड़े सभ्यता की डोर
सांस बांधे सांस को
चलो उठो अब बहुत हुआ
आगे हमारी बारी है
सूरज चढ़ने को हुआ
अभी नया सवेरा बाकी है
सुबह शाम की आरतियां
उस अधमरी लाश में
कुछ हरकत पैदा करतीं है
अलसाए सूरज की
बुझती किरणों को
एक बार फिर विदा करती है
सड़्क किनारे बैठे भिखारी
अर्धखण्डित मुंडेरों पर कौए
सागर तट तड़पती मछलियां
उसे और अधमरा करतीं हैं
लाल किले का तिरंगा
दलदल में खिला कंवल
लुकछुप नाचता मोर
चीते मिलें चहुं छोर
पीड़ित अधीर आत्मा में
कुछ धीर पैदा करती है
किसकी है विचलित आत्मा
जो प्रतिपल आठों पहर
कराहती सिसकती
सुनने को नया आगाज़
बैचेनी बयां करती है
नहीं हम मरने नहीं देंगे
इस हमारी संस्कृति को
पकड़े सभ्यता की डोर
सांस बांधे सांस को
चलो उठो अब बहुत हुआ
आगे हमारी बारी है
सूरज चढ़ने को हुआ
अभी नया सवेरा बाकी है
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