वो पांच पहर की अज़ान
सुबह शाम की आरतियां
उस अधमरी लाश में
कुछ हरकत पैदा करतीं है
अलसाए सूरज की
बुझती किरणों को
एक बार फिर विदा करती है
सड़्क किनारे बैठे भिखारी
अर्धखण्डित मुंडेरों पर कौए
सागर तट तड़पती मछलियां
उसे और अधमरा करतीं हैं
लाल किले का तिरंगा
दलदल में खिला कंवल
लुकछुप नाचता मोर
चीते मिलें चहुं छोर
पीड़ित अधीर आत्मा में
कुछ धीर पैदा करती है
किसकी है विचलित आत्मा
जो प्रतिपल आठों पहर
कराहती सिसकती
सुनने को नया आगाज़
बैचेनी बयां करती है
नहीं हम मरने नहीं देंगे
इस हमारी संस्कृति को
पकड़े सभ्यता की डोर
सांस बांधे सांस को
चलो उठो अब बहुत हुआ
आगे हमारी बारी है
सूरज चढ़ने को हुआ
अभी नया सवेरा बाकी है
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9 टिप्पणियां:
नया सबेरा के लिए अच्छा लगा प्रयास।
रचना की रचना पढ़ी सुन्दर है एहसास।।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.
चलो उठो अब बहुत हुआ
आगे हमारी बारी है
सूरज चढ़ने को हुआ
अभी नया सवेरा बाकी है
नए सुबह बाकी है .बहुत ही उम्दा भावुक रचना रचना जी . नए सुबह का अहसास मोहक होता है . अतिसुन्दर .बधाई
बहुत बहुत बहुत अच्छी रचना है ...मुझे बहुत पसंद आई
मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति
mujhe to ye naya savera bahut raas aaya
sunder abhivyakti.
jitnaa sundar blog hai aapkaa utnee hee prabhaavee rachnaa lagi aapkee...bahut sundar..
हर सबे गम की सहर हों ये जरुरी तो नहीं
नींद तो दर्द के बिस्तर पर भी आ सकती हैं
उसकी आगोश में सिर हों ये जरुरी तो नहीं!
सुंदर अच्छा लगा.
Is raajnitik KALYUG mai nai savere ki kalpanaa aaaaaaaaccccchhhhhaaaaa[achaa]hai.
jhallevichar.blogspot.com
UMDA
ANUPAM
PYARI KAVITA
badhai!
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