सोमवार, 10 अगस्त 2009
मुलाकात
कल रात एक अनहोनी हो गई
मेरी मुलाकात मेरे ज़मीर से हो गई
अनगिनत सवाल थे और जवाब मेरेे
जवाब देते देते नज़र मेरी झुक गई
कल रात एक अनहोनी हो गई
तराजू था निगाह में दुनियां के वास्तेे
आज मेरी निगाह ही मुझसे झुक गयी
कल रात एक अनहोनी हो गई
आइ्रने ने गिरा दी गर्त की सारी परतें
चुप्पी होठों की इकरार-ए -खता कर गई
कल रात एक अनहोनी हो गई
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7 टिप्पणियां:
ऐसी भी क्या अनहोनी हो गयी ..??
कभी कभी जमीर से भी मुलाकात कर ही लेनी चाहिये!!
बहुत सुन्दर! सही लिखा जब भी इंसान अपने भीतर अपने से मिलता है तो वह सब कुछ सामने आ जाता है जो हम सदा दूसरों से छुपाते रहते हैं...अपने आप को पहचानना अनहोनी तो है...लेकिन यही अनहोनी हमें एक नया जन्म दे जाती है।
रचना जी ..अच्छी रचना ...
rachan ji jaisa apka nam vaisi hi rachana hai. thanks
bahut-bahut badhai!
zameer ke aage jhooth sach nahi ban sakta....ek sashakt rachna....aaj ke samay kisi ka zameer jaag jaye ye anhoni hi hai...badhai
बिलकुल सही कहा अपने ये आपकी ही नहीं सभी की हालत है
बस! फर्क इतना है अपने बात की और बाकियो की बात बाकी है
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