बरखा की रुनझुन में
नाचे बावरा मोरा मन
बादलों से आंख मिचौली
करती सुनहरी किरण
तन पर पड़-पड़ चमकाए
निखर उठे यौवन का हर रंग
नाचें गाएं मोर पपीहे
हम भूले जीवन का रूदन
भौंरें मंडराये पुष्पों पर
होए परितृप्त मन की बुझन
पुलकित हो उठे बयार जब
पहली बरखा से भीगे आंगन
कितनी ही ऋतुएं बदले पर
बदले न सजनी का साजन
गुरुवार, 9 जुलाई 2009
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7 टिप्पणियां:
बहुत सुन्दर!!
बहुत अच्छी प्रस्तुति
बरखा कहाँ है...आपकी तरफ हो रही हो तो जरा इधर भी भेजे ...
सूखे जा रहे सावन में आपकी इस कविता ने सरसता भर दी है !
वाह ! बहुत सुंदर.
bahut hi khubsurat bhav,waah
Hello,
Beautifully written :-)
Regards,
Dimple
http://poemshub.blogspot.com
बहुत सुन्दर!!
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